Monday, November 30, 2009
Bachchan Sandhya Part-2 complete
Bachchan Sandhya - Part 2
बच्चन संध्या – भाग 2
इससे पहले कि हम लोग इस सफर में आगे बढ़ें मै पायल का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जिसके सहयोग के बिना शायद मै बच्चन संध्या से प्यासा ही घर को लौट जाता ।
चलिये ‘अकेलेपन का बल पह्चान’ के बाद भाईसाहब ने एक अन्य रचना प्रस्तुत की जिसका मुखड़ा था –
मै सुख पर सुखमा पर रीझा
इसकी मुझको लाज नही है ..
पुष्पा जी ने बड़े ही सुंदर ढंग से मधुशाला की भूमिका बांधते हुये कहा कि बच्चन जी ने वैसे तो कई एक कवितायें लिखी है पर अमिताभ जो स्वयं उनकी एक श्रेष्ठतम रचना है (इसमें तो संदेह की कोई गुजाइश ही नही है ) उन्हीके द्वारा प्रस्तुत है बच्चन जी की सर्वश्रेष्ठ रचना मधुशाला । एक छोटे से परिचय संगीतकार कल्याण जी के पुत्र विजू शाह के साथ जब अमिताभ बच्चन ने मधुशाला पढना प्रारंभ किया कोई भी मंत्रमुग्ध हुये बिना नही रह सकता था मैने भी संगीत और स्वर के साथ उनका साथ निभाया ।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला (125) .. के इस छंद के साथ मधुशाला का श्रीगणेश करते हुये अमिताभ बच्चन जी ने अगला छंद वही पढ़ा जिसको स्वयं अपनी आवाज में बच्चन जी ने मधुशाला (मन्ना डे) के प्रारंभ में रिकार्ड किया था
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला (6) ...
Sunday, November 29, 2009
Bachchan Sandhya part-1
सादर चरण स्पर्श
28 नवंबर 2009
एक शाम अमिताभ के साथ – मैं भाईसाहब से मिला भी और नही भी मिला –
पहले मिलने के बारे में कह लेता हूं, ना मिलने का गिला बाद में ही करते हैं ।
जी हां, हम बच्चन संध्या के आयोजन के बारे में ही बात कर रहे हैं, पिछले 2-3 दिनों से दिमाग इसी उलझन में फंसा था कि कैसे बच्चन संध्या में हाजिरी लगाई जाये । अक्सर ऎसा होता है कि आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ और ही है ।
यकायक मेरे समने अभिषेक और एश्वर्या खड़ॆ थे, अकस्मात मुझे कुछ कहने की बात ही नही सूझी, मै अपने मन की कोई भी बात उनसे नही कह पाया, न पा के बारे में, न ही ओबामा द्वारा दी गई दावत के बारे में, यहां तक कि भाईसाहब को चरण स्पर्श पहुंचाने की गुज़ारिश भी नही कर सका, बस यही कह पाया कि मैं ब्लाग पर लिखने वाला अभय शर्मा हूं और मेरे पास पास नही है साथ ही एश्वर्या को मैने वे दो पन्ने भी थमा दिये – प्रणय-प्रसंगिनि तथा कवि का सम्मान नामक कविताओं वाले । एश्वर्या ने अपने पास खड़ॆ एक व्यक्ति को मेरी ओर इशारा किया और शायद मुझको अंदर ले आने का संकेत उन सज्जन को दिया, मैं बहुत ही उत्साहित होकर लपक कर आयोजकॊं के पास पहुंचा और अपनी बात उनके सामने रख दी जिसे अनसुना कर दिया गया मै फिर लपक कर उन सज्जन तक पहुंचता तब तक वे वहां से अंतर्धान हो चुके थे ।
निराश हताश अभय शर्मा कभी इससे तो कभी उससे बस यही गुहार लगाता रहा कि यदि एक पास का इंतजाम हो जाये तो क्या ही अच्छा हो । जब कहीं से कोई बात बनती नही दिखाई दी तो पैसों तक का हवाला देकर पास हासिल करने की भी कोशिश की, प्रसून जोशी को प्रणाम कर यह फरियाद भी जोड़ दी कि आप भाईसाहब को यह बता दें कि मै यहां बाहर ही खड़ा हूं मेरे पास पास नही है, एक अन्य कविता के पीछे एक दूसरा संदेश मैने भाईसाहब कि लिये लिख दिया जो प्रसून जी को थमा दिया था मै आशान्वित था कि अब तो मेरा काम बन ही जायेगा, पर कहां साहब, समय गुजरता जा रहा था और स्वागत से पहले ही विदाई का आभास मुझे (आने के ही साथ जगत में कहलाया जाने वाला) हो रहा था ।
तभी किस्मत ने पलटा खाया एक बहुत ही सुशील कन्या जिसका नाम पायल था उसने मेरी परेशानी को समझा, मुझे धीरे से बताया कि बाईं तरफ़ अमित जी की वैन खड़ी है वे अभी अंदर नही ही गये होंगें, अगर वे आपको पहचानते है तो अवश्य ही आपको पास मिल सकता है । मैने आव देखा न ताव, तेजी के साथ निर्दिष्ट गली की तरफ़ लपका, कुछ एक पुण्य कर्म मैने किसी जन्म में अवश्य किये होंगे, एक सज्जन हाथ में कई एक पास लिये कुछ खास लोगों को बांट रहे थे, आनन-फानन में मैने अपना आई-कार्ड दिखाया और संक्षिप्त रूप में उन्ह यह भी बताया कि मै भाईसाहब के ब्लाग पर लिखता हूं, उन्होने बिना कुछ और कहे या सुने ही एक पास जिस पर वाई-41 लिखा मेरे हाथ में थमा दिया ।
मेरे पैरों में जैसे बिजली की सी चाल आ गई, जल्दी ही मैने घर पर फोन मिलाकर सविता व अमृत को अपनी इस सफलता की सूचना दी, और सीना चौड़ा करके आयोजकों को अपना पास दिखाते हुये तेजी से बच्चन संध्या के कार्यकरम मेम सम्मिलित होने के लिये जैसे उड़ा चला जा रहा था, मुझे तो उस समय यह भी ज्ञात नही था कि मेरे पास जो पास था वह बालकनी का पास था और वह भी आखिरी पंक्ति , मेरा दिमाग इस बात से बिल्कुल भी विचलित नही था, मेरी प्रसन्नता की कोई सीमा नही थी, मेरा दिमाग तो इस समय डॉक्टर बच्चन के साथ था । शीघ्रता के साथ मैने अपनी मज़िल पर लिफ़्ट रुकते ही हाल में प्रवेश किया । कार्यक्रम बस प्रारंभ ही हुआ था, शायद भवन के अध्यक्ष श्री सुरेन्द्र लाल मेहता स्वागत भाषण कर रहे थे । कुछ ही देर में पुष्पा भारती जी ने मच संभाल लिया था और भाईसाहब ने बिना भारी भरकम भूमिका के साथ काव्यांजलि की पहली कविता अर्पित की –
अकेलेपन का बल पहचान ..
अभय शर्मा
29/30 नवंबर 2009 1:15 AM IST
Thursday, November 26, 2009
Janm din kI shubh Kaamanayen
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भुला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का- सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,जो किया,
उसी को करने की मजबूरी थी,जो कहा,
वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है
,यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ jo
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देती
केवल छूकर ही देश-काल की सीमायें
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाये
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
Dr. Harivansh Rai Bachchan
Respected Dr. Bachchan
Sadar Charan Sparsh
I wanted to wish you a happy birthday Sir, Many Happy returns of the day.. To be frank and honest with you I thought I should have talked with you in Hindi.. then I realised it does not matter.. it does not really matter as you were a PhD. on Yeats and in English Literature.. does it really मatter.. I mean does te language really matter when one has to express.. sometimes just the silence is much more communicative than the language or the words we speak..
I know last year it was one of those acts of terror that had shook Mumbai like never before.. that we could not really be in a wishing mood the next morning.. this year brother Amitabh has organised a Bachchan Sandhya at Bhavan's auditorium.. I am unable to e part of it.. jisake naseeb mein jitana likha hai use na usase jyada na hi usase kum , nahi mil sakata..
I know this letter may never reach you as it does not carry any postal address or even an email id.. it is all right.
मन का हो तो अच्छा है
न हो तो और भी अच्छा है ।
चलिये आपसे कुछ और बात करने से पहले मैं यह बता देता हूं कि आज मन में कोई दुविधा नही है, मैं इस बात से नाहक ही परेशान था कि आपसे कभी मिल नही सका जहां मन मिले हों वहां तन का मिलना क्या कुछ मायने रखता है । इस बात का मुझे संतोष है कि मै अपनी भावनाओं को कम से कम व्यक्त तो कर सकता हूं इस पर तो कोई पाबंदी नही है, किसी किस्म का पहरा नही है, किसी टिकट या पास की भी कोई आवश्यकता नही है फिर मै अपने मन की बात क्यों न कहूं ।
आप जिस लोक में आज निवास करते हैं वहां के बारे में मुझे अधिक सूचना या जानकारी नही है फिर भी कहीं आस-पास ही श्रीमती तेजी बच्चन का भी निवास स्थल होगा इस बात में संशय नही है, आप लोग एक दूसरे से कभी-कभी मिलते है या नही । किस तरह का जीवन रहता है वहां, लेखन सामग्री इत्यादि उपलब्ध रहती हैं या नही और कविताई कैसी चल रही है, मैं तो यही चाहता हूं कि आप अपनी कविताओं से उस लोक में भी सभी को आनंद प्रदान करते रहें । मातामयी तेजी जी को भी अगर संभव हो तो मेरा प्रणाम अवश्य ही पहुंचा दीजियेगा ।
आपका एक प्रशंसक
धरती वासी - अभय शर्मा
Sunday, November 22, 2009
Madhushala in Harivansh Rai Bachchan's Own voice !!!
chalta hai peene vala
madiralay jaane ko ghar se
chalta hai peene vala
kis path se jaaon
asmanjas mein hai vo bhola-bhala
alag alag path batalate sab
alag-alag path batalate sab
par main yah batalata hoon
raah pakad tu ek chala chal
paa jayega madhushala
paa jayega madhushala..
followed by Manna Dey sahab's rendition
Madhushala Rendition by me recorded by Amrit..
gyaat hui apani haala
apane yug mei sabko adbhut
gyaat hua apana pyaala
..
Mele Mein khoi Guzariya
किसको भूलूं या फिर किसको-किनको याद रखूं
सभी सगे है मेरे अपने कैसे फिर उनको छोड़ूं
हे मेरे मन सुन मेरी धुन दुविधा में तू मत पड़ना
जब जी चाहे जितना चाहे याद सभी को कर लेना
अभय शर्मा
Dr. Bachchan's first meeting with Miss Teji Suri
प्रतिधव्नित करता रहा है
शून्य जो तूने कहा है
इसलिये तुमको प्रणय के
एक दिन देगी सुनाई
दुर्निवार पुकार।
I had received an urgent long telegram from my friend Prakash, the contents of which insisted that I shall possibly reach Bareilly from Abohar at the very earliest. The words in the telegram were grafted with such an intense request that I could not do anything other than reaching Bareilly. In fact it wasn’t a mere telegram it was a sort of a call of destiny!
There was a Lucknow bound night passenger from Delhi that also went via Moradabad-Bareilly. On 30th Morning I left Abohar fpr Delhi and reached there in the evening, from there took the night train and reached Bareilly on the morning of 31st. Prakash had moved into a new bungalow which was next to electric house. When I reached his bungalow riding a tonga, it must have been around six or six thirty. It is actually quite dark in winters at such early hours and Prakash was still asleep. His servant informed him of my arrival and he directed him to send me to his bedroom (Thinking – who possibly could have arrived at such an early morning!). He was still inside his quilt, a blue shade night lamp on his bedside was on. I sat close to his bedside, he took my right hand into his left and pulled it inside the quilt, pressed it in such a way so as to suggest and express to me – that whatever you have been through in the last two months is not unknown to me, I know everything! I am aware you have undergone multitudes of troubles, I have complete sympathy for that, don’t feel that you are alone, I am with you, try to cheer up, keep your hopes alive.
I said to myself, look who was expressing such great sympathy towards me, someone who had not been happy within himself. Who had hidden all his internal sufferings with his external smile, who was always highly considerate of every troubled soul, who wanted that every person be cheerful and happy on this earth! Atleast so very true for me!
(Here it would be appropriate to tell that Gyan Prakash Jauhari of Bareliiy college was a friend of Dr. Bachchan who had earlier helped and supported him in life in his tough times, that he had his own problems in life which he hardly discussed with others- he always tried to embrace his friends into happiness!)
कल मुर्झाने वाली कलियां
हंसकर कहती है मग्न रहो।
(The buds destined to be on deathbed the next day suggest with a smile remain cheerful!)
Only buds that are indifferent of their own fate can possibly propagate the thought to remain cheerful to others. With the murmurs of my arrival, his wife Prema also woke up in her bed. Aditya and Uma also joined us from their rooms and covered their feet with warmth of the quilt on Prakash’s bed. It was our first meeting since the death of my father, naturally the conversation had to begin with reflections of condolences and picking up of threads from thereon.
Mind is such an extremely wonderful machinery. No one knows, who could initiate it into which directions and at what speeds with what results. My mind took me to the old Allahabad days of Adityas’ room at new katara, All Saints House of Civil Lines, Women’s hostel of university, BaSudha cottage of Bailey Road ( which was thus enchristened by my fellow poet Pantji : Ba – Bachchan, Su – Sumitranandan and Dha – for Dharan which means to holding, i.e. the house of house of Bachchan and sumitranandan in short), the Phaphamau bridge, my father’s room at our katara home, lawan of the girls school where Iris was teaching, the deadbody of my father lying in the room of a flat close to Basudha, yes we are in the midst of expressions over his death, that they are probably unaware of yet another death in my family, that none would like to rake up such issues. All this crossed my mind in a flash of a second and was writ over my face. The condolences offered include substantially condolences for this other death too!
Such is the human nature that it understands and communicates without words being exchanged! What was going on in his mind, I could understand, and what I could understand was equally ably conceived by him quite well. Words sometimes are merely crude way of expressing feelings, when the situation is grave the eyes do conversation, the body language speaks, expressions on our face, colour of our skin - they all portray the state of our mind like no word could ever describe. And whatever was being communicated or expressed did bring to surface the same facts and thoughts that I once pretended that I wanted to erase from my memory that I believed I had left behind! In reality nothing can ever be left behind and forgotten, if we exert forces to expel such thoughts they seem to take deeper roots. I often feel that this exercise of forgetting becomes an object to remember what we like to forget! Prakash grasps the fact that atmosphere has become unduly tense and difficult to move ahead, he call his servant and orders him to serve tea to us. Tea arrives, Prakash indicates to Prema to call Teji as well , she must have been up by now.
I heard this name in his household for the first time. I am told teji, in fact is Miss Teji Suri, she teaches psychology in Fatehchand college of Lahore, where Prema had gone as a principal, Prema stayed with her in Lahore and and had asked her to join us for Christmas vacations. She is put up in the adjacent room.
In a flick of a second, one of the door opens up slowly, and miss Suri enters into our room – smiling, medium height, compact body with big eyes, long nose medium lips neither too full nor too thin, bright shining teeth, the chin only as round as could defy to be termed pointed – nearly a face of a greek woman. She had wrapped a black dupatta around her face that necessarily accentuated her fair complexion a little more. Her eyes were still beset with some tender sleepiness in them. She was wearing a purplish salwar kameez and just hung a woolen coat on her for protection from the cold. The moment she entered the room, I got up from my seat with little uncomfort of confronting a new face. Prema introduced her – my friend Teji, Prakash introduced me – My friend Bachchan. The beauty of the first sight of Teji was enough to attract with gratitude. Realizing the melancholic state of my mind had she not looked up at me with that impulsive impressive look of her tender eyes, I would have definitely turned my focus away from her! She settled herself on the other end of the Bed of Prakash, who had now adjusted himself to a half lying position to accommodate. I was sitting opposite her on the other end. So far there was only the glow of the night lamp in the room, I felt that after Teji entered it appeared as if another lamp had been lit, such was the glow of her presence!
I shall write more of the first encounter with Shrimati Teji Bachchan from the autobiography of our beloved great poet Dr. Harivanshrai Bachchan. I wanted to end this first writing with the observation that Miss Teji Suri entered the life of Dr. Bachchan as a source of new light!)