Wednesday, December 2, 2009

बच्चन संध्या -३ द्वितोय खंड

बच्चन संध्या भाग – 3 द्वितीय खंड

जया जी की काव्यांजलि के बाद पुष्पा जी ने उस कविता रूपी पुष्प को आमिताभ बच्चन से प्रस्तुत करने का आग्रह किया जिसका शब्द-शब्द भाईसाहब के जीवन में इतना गहरा उतरता है जितना शायद ही कविवर बच्चन जी ने कभी इस कविता को लिखते समय महसूस किया होगा – मै पीछे से पुकार उठा ‘जीवन की आपाधापी में’, शायद कुछ लोगों को मेरा यह व्यवहार अनुचित भी लगा हो, मै कई बार टिप्पणी करने से अपने आपको रोक नही सका, ‘जीवन की आपाधापी में’ अपने आप में एक सशक्त कविता है उसे किस प्रकार से पढ़ा जाना है शायद डाक्टर बच्चन ने कभी भाई अमिताभ को बताया होगा जब भावों के साथ, शब्दों के अपेक्षित उतार-चढ़ाव, ठहराव के साथ भाईसाहब ने जब कविता की प्रमुख पंक्तियां पढ़कर सुनाई तो वाकई मज़ा आ गया साथ ही मुंह से हठात ही निकल गया ‘दैट्स इट’ । अगर अपने इस व्यवहार के कारण अन्य लोगों के आनंद में बाधा पहुंचाई हो, या आपके कविता पाठ में किसी भी प्रकार बाधित किया हो तो मैं गुनहगार हूं, पर हां मै सीमा से बाहर नही गया इस बात का ध्यान सदा ही रखा –
मैं कितना ही भूलूं भटकूं या भरमाउं ..
..
कुछ देर कहीं पर बैठ
कभी यह सोच सकूं
जो किया कहा माना
उसमें क्या बुरा भला

यह कविता अभी कुछ ही समय पहले तथा कुछ दिन पहले भी ब्लाग पर शेयर करी थी, मेरे अपने अभयहरिवंश ब्लाग पर भी पूर्ण कविता उपलब्ध है ।

तत्पश्चात पुष्पा जी ने बताया कैसे श्रीमती तेजी बच्चन भी डाक्टर बच्चन के साथ कविता पाठ में सहयोग देती थीं । ऎसी ही एक सुंदर रचना को उन्होने अमिताभ को जया जी के साथ सुनाने के लिये अनुग्रहीत किया –
अमिताभ–जयाः- तुम गा दो मेरा गान अमर हो जाये
(पूर्ण गीत मै आपको थोड़ी ही देर में उपलब्ध करवाता हूं )

जब दोनो एक साथ कविता कर रहे थे तब ऎसा लग रहा था मानो कल ही दोनो का विवाह हुआ हो, जया जी के चेहरे पर थोड़ी सी नव वधु की घबराहट झलक रही थी वह अकुलाहट जो छुपाये नही छिपती बरबस मुझे अभिमान फ़िल्म की याद आ गई जहां दोनो ने ही गायक कलाकार की भूमिकाओं में साथ-साथ कई गाने गाये थे – तेरे मेरे मिलन की यह रैना । भाईसाहब आत्मशक्ति के प्रतिमान स्वरूप सहज दिख रहे थे उनकी वाणी में जैसे सरस्वती ने वास कर रखा हो ।

इसके उपरांत पुत्र अमिताभ ने पिता कवि बच्चन के जीवन के कुछ एक ऎसे संस्मरण सुनाये जिन्हे सुनने के बाद कवि से भी उतना ही प्यार हो जान स्वाभाविक है जितना उनकी कविताओं से हमें सदैव ही रहा है ।

कवि बच्चन की आत्म-शक्ति का परिचय देते हुये अमित जी ने एक वाकया उपस्थित जन-समूह को सुनाया तो इसीमें उनके दृढ़ निश्चय, इच्छा-शक्ति के साथ-साथ उनके अंदर छिपे हुये कलाकार का भी परिचय मिल जाता है । किस्सा कुछ लम्बा है साथ ही रोचक भी इसे तृतीय खंड में रखने का निर्णय मेर नही मेरी पीठ का है, पीठ जबाव दे रही है ना मै कवि बच्चन जैसा आत्म-बल रखता हूं ना ही मेरे पास श्वेता की दी हुई सुखद कुर्सी है जिसका आपने आज सुबह फ़्यूज़ उड़ा दिया था । फिर भी जाने से पहले कोशिश करता हूं कि आपके लिये वह सहगान का मुखड़ा अवश्य ही उपलब्ध करा सकूं जिसका उपर वर्णन किया गया है –

तुम गा दो मेरा गन अमर हो जाए

(1)
मेरे वर्ण-वर्ण विश्रंखल,
चरण-चरण भरमाये,
गूंज-ग़ूजकर मिटने वाले
मैने गीत बनाये,
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठों पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाये ।

(2)
जब-जब जग ने कर फैलाये
मैने कोष लुटाया,
रंक हुआ मै निज निधि खोकर
जगती ने क्या पाया

भेंट न जिसमें मैं कुछ खोउं
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाये
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाये ।
(3)
सुंदर और असुंदर जग में
मैने क्या न सराहा
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;

देखूं अब किसकी रुकती है
आ मुझ पर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाये
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाये ।

(4)
द्य्ख से जीवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घड़ियों में
भी तुमसे यह कहता,

सुख की एक सांस पर होता
है अमरत्व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाये
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाये ।
अभय शर्मा
2 दिसंबर 2009 11.00 (रात्रि प्रहर)








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