Sunday, November 28, 2010

Bachchan Sandhya - one year later

November 28 2009 would go down as one of the best evening in my life.. I was at Bharatiya Vidya Bhavan and had spent nearly three hours with not just brother Amitabh Bachchan but almost entire Bachchans.. plus Dr. Pushpa Bharti.. when I look back.. I get the impression that it was a bigger event for me than the celevrations of brother Amitabh on October 11 2010 where we had manged to not only spend some time bit take lot of autographs or photographs..

The real differecne was that he was performing for us on Bachchan Sandhya.. compared to simply entertaining us on his birthday.. the other major difference could be the presence of Dr. Harivansh Rai Bachchan the octogenerian poet whose 102nd birthday was being celebrated publicly with the release of his biggest work in bilingual form.. and not only Amitabh Bachchan but even Dr. Pushpa Bharati shared lot of their memories from th life of Dr. Bachchan.. it was almost like education..

I woudl love to have another attendance of such a program like Bachchan Sandhya rather than meet brother Amitabh for simple wishing and meeting.. maybe someday I could be a part of the Aman Ki Asha where he may address the people from our two countries India and Pakistan.. I did miss an opportunity last time when he performed at Bandra with the Pakistani actor Zia Moiddeen..

Thursday, November 25, 2010

On the eve of the 103rd Birth Anniversary of Dr Harivansh Rai Bachchan..

Param Shraddheya Dr. Bachchan
I know that you are not with us today physically but in the form of your everlasting Poetry especially Madhushala you would always be there with us eternally..
Here I share some of the poetry written by her and available under Meri Shrestha Kavitayen..

1. Madhushala p. 34
छोटे से जीवन में कितना प्यार करूँ पी लूं हाला..
आने के ही साथ जगत में कहलाया जाने वाला..
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखि तैयारी..
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन मधुशाला...

2. Kaun Tum Ho p. 151

आज परिचय की मधुर
मुस्कान दुनिया दे रही है
आज सौ सौ बात के
संकेत मुझसे ले रही है..

विश्व से मेरी अकेली
यदि नहीं पहचान तुम हो ,
कौन तुम हो ?

Sunday, January 24, 2010

युग-पंकः युग-ताप



युग-पंकः युग-ताप

दूध-सी कर्पूर-चंदन चांदनी में
भी नहाकर, भीगकर
मैं नहीं निर्मल, नहीं शीतल
हो सकूंगा,
क्योंकि मेरा तन-बसन
युग-पंक से लिथड़ा-सना है
और मेरी आत्मा युग-ताप से झुलसी हुई है;
नही मेरी ही तुम्हारी, औ’ तुम्हारी और सबकी ।
वस्त्र सबके दाग-धब्बे से भरे हैं,
देह सबकी कीच-कांदो में लिसी, लिपटी, लपेटी ।

कहां है वे संत
जिनके दिव्य दृग
सप्तावरण को भेद आए देख-
करूणासिंधु के नव नील नीरज लोचनों से
ज्योति निर्झर बह रहा है,
बैठकर दिक्काल
दृढ़ विश्वास की अविचल शिला पर
स्नान करते जा रहे हैं
और उनका कलुष-कल्मष
पाप-ताप-‘ भिशाप घुलता जा रहा है ।

कहां है वे कवि
मदिर- दृग, मधुर कंठी
और उनकी कल्पना-संजात
प्रेयसियां, पिटारी जादुओं की,
हास में जिनके नहाती है जुन्हाई,
जो कि अपने बाहुओं से घेर
जाड़व के ह्रदय का ताप हरतीं,
और अपने चमत्कारी आंचलों से
पोंछ जीवन कालिमा को
लालिमा में बदलतीं,
छलती समय को ।
आज उनकी मुझे, तुमको,
और सबको है जरूरत ।
कहां है वे संत
वे कवि है कहां पर ?-
नहीं उत्तर ।

वायवी सब कल्पनायें-भावनायें
आज युग के सत्य से ले टक्करें
गायब हुई हैं ।
कुछ नही उपयोग उनका ।
था कभी? संदेह मुझको ।
किंतु आत्म-प्रवंचना जो कभी संभव थी
नही अब रह गई है ।
तो फंसा युग-पंक में मानव रहेगा ?
तो जला युग-ताप में मानव करेगा ?
नहीं ।
लेकिन, स्नान करना उसे होगा
आंसुओं से – पर नही असमर्थ, निर्बल और कायर,
सबल पश्चाताप के उन आंसुओं से,
जो कलंकों का विगत इतिहास धोते ।
स्वेद से – पर नहीं दासों के खरीदे और बेचे, -
खुद बहाये, मृत्तिका जिससे कि अपना ऋण चुकाये ।
रक्त से- पर नहीं अपने या पराये
उसी पावन रक्त से
जिसको कि ईसा और गांधी की
हथेली और छाती ने बहाये ।

- हरिवंश राय बच्चन ( मेरी श्रेष्ठ कवितायें – पृष्ठ 394-395)

आदरणीय भाईसाहब,
सादर चरण स्पर्श
यह कविता अचानक मेरी आंखों के सामने बरबस आ गई- यहां प्रस्तुत करने से अपने आपको रोक नही सका, धृष्ठता के लिए क्षमा-प्रार्थी हूं, आप मुझ पर मुकदमा न दायर कर दें, मै अपना बचाब नही कर रहा, आपकी ही लेखनी से जो कुछ लिखा गया उसमें इसी कविता का कुछ-कुछ रूप देखा सो आपके लिये यहां प्रस्तुत किये बिना नही रह सका ।

आपका अनुज
अभय शर्मा
25 जनवरी 2010

पुनश्चः शायद मेरी प्रातःकालीन कविता कवि बच्चन की इस कविता का एक लघु रूप थी इसीलिये उनकी आत्मा ने मेरा पथ-प्रदर्शन कर इस कविता को आप सब तक पहुंचाने का आशय बना दिया हो ।

अपनी कहानी - अपनी जबानी

आदरणीय भाईसाहब
सादर चरण स्पर्श

आपसे विनम्र निवेदन है कि आप हम लोगों को सदा ऎसे ही प्रेरित करते रहें - आज आंख में आंसू तो शायद सूख चुके है पर मन फिर भी रो रहा है - हम कितने बेबस या लाचार है इसका सही अनुमान लगाना मेरे बस के बाहर की बात है, क्यों कहीं कोई बुद्ध नानक या कोई अन्य अवतारी पुरुष इस गरीबी, भुखमरी, फकीरी या बेबसी से हमें क्यों नही निजात दिला सकता । प्रश्न साधारण होते हुये भी उत्तरहीन है - एक छोटी सि कविता आपके भावों से प्रेरित होकर लिखी है - नही, नही, मै तो इस विषय में अपने मन की कह ही नही सकता या कहने से क्या लाभ, कभी कोई कदम इस दिशा में अत्यधिक चाहते हुये भी कभी नही उठा पाया हूं - अपने इन भाई-बहनों से सहानुभूति होते हुये भी कभी भी ऎसा कोई भी कार्य नही किया है कि कभी अपनी पीठ भी थपथपा सकूं (भी का आधिक्य जानबूझकर किया है अपनी असमर्थता पर बल देने के लिये) - चलिये कविता प्रस्तुत है अगर कहीं कोई त्रुटि हो तो अपना अनुज मान कर माफ कर दीजियेगा –

जीवन-परिचय

होश मेरे उड़ गये
अल्फाज़ भी थे खो गये
जब देखता हूं यह गरीबी
या कहूं इतनी फकीरी
उनकी हालत पर तरस खाता नही
अपनी हालत पर बरस पाता कहीं
क्या कर सकूंगा कुछ कभी
जो कुछ न कर पाया अभी
आज मेरी आंख में आंसू नही
दिल भी रोता है कहूं मैं क्या नही
तन पे कपड़ा ही नही
न मन में उनके है खुशी
बस जी रहे है जिंदगी सब
है अजब सी, इस जहां की बेबसी
न इन्होने सुख को जाना
न ही जाना कोई सपना
बस जहां जिस हाल में है
भाग्य अपना उसको माना
न कोई उमंग छूती
न तरंग ही है उठती
जी रहे है जिंदगी को
जैसी उनकी जिंदगी थी
आज मिलकर मन मसोसा
अपने दिल को भी टटोला
हैं क्या यही जीवन के मानी
अपने मन में फिर ये ठानी
कर भला होगा भला
हर शख्स सोचे तो जरा
आज जब उनसे मिला
अपने से भी थी एक गिला
कुछ समय के ही लिये
या कुछ पलों के वास्ते
सोचता हूं जब पलटकर
या देखता मुहं मोड़कर
क्यों खुदा ने खेल इनके साथ खेला
क्यों बंद करके रास्ते
क्या यही जीवन है या फिर
एक यही सच जिंदगी के मायने ।


अभय शर्मा
25 जनवरी 2010